अंतस ऊंडै उतरती कवितावां / नीरज दइया

    ‘उजाळो बारणै सूं पाछो नीं मुड़ जावै’ युवा कवि दिनेश चारण रो पैली पोथी। सवाल ओ हुय सकै कै पोथी रो नांव ‘उजाळो बारणै सूं बावड़ नीं जावै’ क्यूं नीं राख्यो। इणी सवाल भेळै एक दूजी बात जिकी कविता रै लेखै घणी मेहताऊ मानीजै कै किण सबद नै ओळी मांय कठै अर कियां राख्यो जावै। दाखलै रूप इणी ओळी नै इयां देखां- ‘पाछो नीं मुड़ जावै बारणै सूं उजाळो’ का ‘पाछो मुड़ नीं जावै बारणै सूं उजाळो’। इण ढाळै री केई-केई विगत आपां विचार कर सकां। जिका इण बात रो मरम नीं समझै, इण ढाळै रै सवालां सूं पल्लो झाड़ कैय सकै कै इण सूं कांई फरक पड़ै- बात तो एक ई है।
    आ बात साव सरल कोनी कै कोई कवि सबदां नै कविता मांय कियां परोटै। आ बात घणी मेहतावू है अर हरेक कवि आपरी समझ परवाण सबदां नै कविता मांय परोटै। ओ संग्रै लारलै केई केई पोथ्यां अर खास कर युवा रचनाकरां री पोथ्यां सूं घणो न्यारो-निरवाळो है। आ पोथी कवि दिनेश री पैली पोथी हुवतां थका ई घणी उल्लेखजोग बात कवि री सध्योड़ी काव्य-भासा मान सका। साथै ई आं कवितावां रै मारफत कवि रै काव्य-विवेक अर ऊरमा रो अंदाजो ई लगा सका। पोथी रै कवर माथै ‘राजस्थानी कविता रो नवो अर अरथाऊ पांवड़ो’ ओळी लिखणवाळो दुष्यंत बेसक खुद युवा कवि हुवो, पण इण बात री साख संग्रै री कवितावां भरै। साथै ईज युवा रचनाकार मदन गोपाल लढ़ा री बात- “आं कवितावां में जीयाजूण रो सांच पूरी सुथराई सूं साम्हीं आवै। पैलै पाठ में ई अै कवितावां पाठक रै अंतस उतर जावै....।” माथै म्हारो मानणो है कै संग्रै री कवितावां साची ऊंडै उतरै अर बठै किणी ओळूं रूप थिर हुय जावण री खिमता राखै।
    ‘उजाळो बारणै सूं पाछो नीं मुड़ जावै’ संग्रै में 80 नान्ही कवितावां है। खासियत आ कै कवि साव कमती सबदां मांय आपरै आसै-पारै री दुनिया नै कविता मांय जीवै। ऐ कवितावां कवि री आंख अर हियै रा केई-केई चितराम-सुपनां अर साच राखै। आं मांय कवि रो घर, परिवार, अंतस, आंगणो, गांव, आस, हेत, अपणायत, सपनां, धोरा, कुदरत, खेजड़ी, खोखा, इतिहास, परंपरा साथै मरूधरा रा केई केई रूप-रंग अर मायड़ भासा पेटै लाखीणा भाव मिलै। कवि विकास रै नांव माथै आज बदळतै बगत नै अरथावतो आवण वाळै संकट नै ई देखै-परखै। दाखलै रूप आ कविता देखां- ”डाकियौ कांई व्है?/ पूछै म्हारा टाबर/ ओ तकनीकी क्रान्ति रो फळ है।/ अेक दिन पूछैला/ पिणघट कांई व्है?/ गवाड़ कांई व्है/ तद कांई उतर देवूंला।” (पेज-64)।
    ‘चालीस तांई सोचूं/ बेटी रै वास्तै जिम्मेदार बाप बण जाऊंला/ लुगाई रै वास्तै थोड़ो बेसी ध्यान राखण वाळो/ दुनिया रै वास्तै संवेदनशील/ भायला वास्तै हेताळु/ खुद रै वास्तै थोड़ो करड़ो।/ कीं जीवणो भळै सीख जाऊंला/ चालीस रो व्हैतो-व्हैतो। (पेज-40) आ कविता बांचता बुणगट रै कारण म्हनै मदन गोपाल लढ़ा री कविता ‘म्हारै पांती री चिंतावां’ री हर आई। “म्हनैं दिनूगै उठतां पाण/ माचै री दावण खींचणी है।/ पैलड़ी तारीख आडा हाल सतरह दिन बाकी है/ पण बबलू री फीस तो भरणी ई पड़ैला।/ जोड़ायत सागै एक मोखाण ई साजणो हुसी/ अर कालै डिपू माथै केरोसीन भळै मिलैला।/ म्हैं आ ई सुणी है कै/ ताजमहल रो रंग पीळो पड़ रैयो है आं दिनां।/ सिराणै राखी पोथी री म्हैं/ अजै आधी कवितावां ई बांची है।”
    युवा कविता अर परंपरा पेटै एक मनगत साम्हीं राखूं उण सूं पैली इणी पोथी सूं एक दाखलो दूजो देखां- “हे धरती! दीजै दुःख/ हे सिरसटि! दीजै दौरप/ हे सूरज! दीजै तावड़ो/ हे बादळ! लावजै प्रलय/ पण दीजै सदीव जलम/ अर जीवण मरुधर में/ मायड़ भासा में कर सकूं बात/ जिण सूं/ पाय जाऊं सगळा सुख फगत उणी में। (पेज- 12) आं ओळ्यां मांय आप कन्नड़ भासा री कवयित्री अक्क महादेवी री आं ओळ्यां नै देखां- ‘हे भूख! मत मचल/ प्यास तड़प मत/ हे नींद! मत सता/ क्रोध, मचा मत उथल-पुथल/ हे मोह! पाश अपने ढील/ लोभ, मत ललचा/ हे मद ! मत कर मदहोश/ ईर्ष्या, जला मत...”, इणी ढाळै अठै चेतै करां कवि रसखान री ओळ्यां- “मानुष हौं तो वहीं रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।’ अक्क महादेवी अर रसाखान रो दाखलो देख समझ सकां कै आ कविता आपरी बुणगट मांय किण परंपरा सूं जुड़ै। 
    युवा कवि जितेन्द्र कुमार सोनी री कवितावां बाबत लिखतां म्हैं परंपरा बाबत लिख्यो हो कै राजस्थानी में कविता लिखण वाळा कवि हिंदी माध्यम का अंग्रेजी माध्यम सूं पढाई-लिखाई करै तद वां रै साम्हीं कविता लिखती वेळा जिकी परंपरा हुवै वा हिंदी-अंग्रेजी री अर थोड़ी-घणी राजस्थानी री हुवै। अठै परंपरा रो अरथाव कविता रचण सूं पैली कवि साम्हीं कविता नै लेय’र विचार-धारावां अर न्यारी-न्यारी बै कावितावां अर कवि है जिका सूं कोई कवि प्रेरणा लेवै। अर आगै कैयो कै किणी कवि नै परंपरा में देखण-समझण अर जांचण रो काम आलोचना करै।
    कवि री ओळ्यां है-‘मरुधर री ढाणियां में/ हेत रो दिवलो/ आंधियां बिचाळै ई चसै/ उणनैं तेल अर बाती बारै सूं नीं/ अंतस सूं मिलै।/ मन दांई हालै है दिवला री लौ/ अर उजास करै आखै जग में। (पेज-21) आं ओळ्यां रै दाखलै सूं कैवणो चावूं कै कवि नै कविता अंतस सूं मिलै अर उण रै अंतस राजस्थानी रा संस्कार है। गांव में जायो-जल्मियो कवि आपरी भासा अर जमीन सूं प्रीत पाळै अर सुपनां देखै। प्रीत पाळतै, सुपनां देखतै कवि नै हियै उजास दीसै। इणी खातर वो आपरी चावनावां सबदां रै मारफत कवितावां में प्रगट करै, इण नै कैवां कै कवितावां आप मत्तै प्रगट हुवै अर कवितावां रो उजास कवि ओळख’र कैवै- ‘उजाळो बारणै सूं पाछो नीं मुड़ जावै’। आओ आप कविता रै आंगणै इण दिनेश चारण नांव रै नवै उजास रो स्वागत करां। संग्रै री कवितावां नवै पोत री कवितावां है अर आं रो प्रस्तुतिकरण ई नवै ढंग-ढब सूं प्रकासक करियो है। ऐ कवितावां राजस्थानी री नवी कवितावां मांय एक दूसरी नवी परंपरा री ओळख रा ऐनांण दरसावै जिकी भारतीय कविता रै आंगणै आपरी आंचलिकता साथै रंग लियां ऊभी देख सकां। म्हारो मानणो है कै समकालीन राजस्थानी कविता मांय दिनेश री कवितवां आपरी भासा, बुणगट अर कथ्य री आत्मीयता रै कारण बरसां ओळूं मांय रैवैला।  

० नीरज दइया
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उजाळो बारणै सूं पाछो नीं मुड़ जावै (कविता संग्रै) दिनेश चारण
प्रकासक- लोकायत प्रकाशन, जयपुर; संस्करण- 2015: पाना- 86 पानां; कीमत- 200/-
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