म्हां जिकौ भेळै देख्यौ, देखजौ अबै अेकला / नीरज दइया

पारस अरोड़ा री ओळखण कवि-संपादक अर उल्थाकार रूप चावी-ठावी। माणक अर बीजी पत्र-पत्रिकावां रै मारफत आपरौ करियोड़ो उल्थौ फुटकर अर विसेसांकां मांय देख सकां, इणी ओळ मांय साहित्य अकादेमी खातर हिंदी कवि मंगलेश डबराल रै पुरस्क्रत काव्य-संग्रै “हम जिसे देखते हैं” रो राजस्थानी उल्थौ “म्हां जिकौ देखां” (2013) आप करियो। अठै ओ पण उल्लेखजोग है कै कवि राजेश जोशी री लांबी हिंदी कविता “समरगाथा” रो उल्थौ ई आपरो साम्हीं आयौ। अठै ओ पण कैवणो पड़ैला कै लारला बरसां राजस्थानी मांय उल्थै पेटै साहित्य आकादेमी सांतरो काम करियो।
जद कोई खिमतावान कवि-संपादक उल्थौ करै तद मूळ कवि री ऊरमा नैं उल्थाकार सूं बेसी कवि-उल्थाकार उजागर करैै। राजस्थानी कविता रा कीरत-थंब पारस अरोड़ा “राजस्थानी अेक“ सूं ओळख रै मारग पूग’र “झळ“, “जुड़ाव“ अर “काळजै में कलम लागी आग री“ जिसी काव्य-पोथ्यां अर “अंवेर“ जिसै संकलन रै संपादन सूं आपरी भासा-सिल्प भेळै काव्य-मुहावरै रो अेक रुतबो कायम करियो। मंगलेश डबराल री आं कवितावां नैं बांचती बगत इयां लागै जाणै कवि डबराल राजस्थानी-कवि रो रूप धारण कर लियो हुवै, आ इण उल्थै री खासियत कैयी जावैला।

हम जिसे देखते हैं रो उल्थौ आपां जिकौ देखां री जागा उल्थाकार म्हां जिकौ देखां करियो। अठै गौर करण री बात है कै उल्थै मांय जद किणी सबद नैं किणी सबद खातर काम लेवां तद उण लारै ऊंडी दीठ ई हुया करै। आपां अर म्हां मांय झीणौ आंतरौ देख्यौ जाय सकै। अेक तो आप सूं आपां बण्यो है अर म्हैं सूं म्हां। आपां अर म्हां मांय निजता री बात करां तो ई म्हां मांय बेसी आत्मीयता अर अपणायत रो भाव देख सकां। असल मांय पूरै कविता संग्रै मांय कवि आसै-पासै री चीजां नैं अपणायत अर आत्मीयता रा भाव लियां देख रैयो है अर आपरै देख्योड़ै दीठावां नैं सबदां रै मारफत कवितावां मांय दरसावतौ जाणै आंख्यां साम्हीं न्यारा-न्यारा चितराम प्रगट करिया हुवै।
गद्य कवितावां पेटै कमती कवियां काम करियो है, इण संग्रै मांय हिंदी अर भारतीय कविता-जातरा मांय हुवता बदळाव अर केई प्रयोग ई देख्या जाय सकै। कविता रै सीगै गद्य कवितावां तौ संग्रै मांय मिलै ई’ज पण पद्य जिकौ गद्य सूं बिना किणी खेल का चमत्कार रै होळै-होळै कविता रै रूप मांय प्रगट हुवै वौ ई उल्लेखजोग कैयौ जावैला। “कीं बगत सारू” कविता रौ औ अंस देखां- कीं बगत सारू म्हैं कवि हौ/ फाटी-जूंनी कवितावां री मरमत करतौ थकौ/ सोचतौ थकौ के कविता री जरूत किण नै है
कविता रै रचाव मांय कवि जिकी मरमत करै वा मरमत उल्थै मांय बेसी करणी पड़ै। हरेक भासा री आपरी सबदावली अर कविता रौ मुहावरौ हुया करै उण नै बचावतां थकां उल्थाकार बीचलौ मारग काढै। इण नैं इयां पण कैय सकां कै कविता रो उल्थौ दूजै जलम दांई हुवै जिण मांय नुंवै जलम मांय लारलै जलम री आतमा वास करै।
कवि री आपरी दुनिया हुवै अर उण दुनिया नैं देखण-परखण रो ढंग। कवि डबराल री कवितावां मांय मघरौ व्यंग्य ई घणै मरम भेळै उजागर हुवै। दाखलै सारू बात करां कविता “बारै” बाबत। आ कविता मांय कवि रै कविता लिखण पेटै लिखीजी है अर बां चीजां अर दीठावां रौ बखाण ई कवि करै जिकौ उण रै कविता रचाव रै बगत उणां साम्हीं हुवै पण कवि बिना किणी सवाल करियां सेवट बां दाखला नैं पाछो बतावतौ मांडै कै उण री कविता मांय आंख्यां साम्हीं जिकी चीजां है वै क्यूं नीं। इणी मरम नैं कविता खुद रौ अंधारौ खोलै- जद रोसणी हुई/ पड़छांवळी दीसी/ खुद सूं मोटौ दीस्यौ/ खुद रौ अंधारौ।
असल मांय कवि आपरै आसै-पासै रै अंधारै माथै का दिन थकां नीं दीसती चीजां नैं दरसावण खातर ई कविता मांडै। कवि दादोसा, बाबोसा, मां अर खुद री फोटू देखतां थकौ कविता मांडै। दूजै पासी कीं विसय लेय’र कवितावां मांडै जियां- कागद, नींद, सपना, टाबरपणौ, चांद, निरासा, आंसू, हासियौ आद।
किणी रचना नैं सबद-सबद साधता कोई ओळी साधीजै पण सबद री ओळख कर उण नैं किणी ओळी मांय राखणौ अर उण रै जोड़ मांय लगौलग मेळ रा सबदां रो साथौ मिलणौ दीसै जितौ आसान कोनी हुया करै। कविता “सात ओळियां” इणी मरम नैं दरसावै- ”मुस्किल सूं हाथै लागी अकेक आसान ओळी/ अकेक दूजी बेडोळ-सीक ओळी में समायगी/ बा तीजी तूटी-भागी किसम री ओळी नै धक्कौ दियौ/ इण तरै मुस्किल-सीक डिगमिगावती चौथी ओळी बणी/ जिकी खाली झूलती थकी पांचवीं ओळी सूं उळझी/ वा छटपटायनै छठी ओळी नै सोधी जिकी आधीज लिखीजी ही/ सेवट सातवीं ओळी में पड़ग्यौ ओ सगळौ मळबौ।” आ कविता आज रै जुग मांय भासा रै बरबाद हुवण रो दीठाव कमती सबदां सखरै रूप परोटै।
किणी रचना री सफलता इण बात मांय पण जाणीजै कै उण नैं बांचती वेळा उण रै आगै रौ दीठाव-बखाण बांचणियां रै सोच मांय आगूंच नीं आय जावै। खासकर गद्य कवितावां मांय कवि किणी ओळी नैं कैंवतो-कैंवतौ ठाह ई नीं लागण देवै अर कठै सूं कठै पूग जावै। नवी अर न्यारी न्यारी दीठ रा दरसाव राखती आं कवितावां मांय उल्थाकार री खासियत आ कै जिण मूळ भासा अर बुणगट नैं बचाय’र आं नै राजस्थानी मांय लावण रौ कारज इण ढाळै करिज्यौ है कै कठैई कोई सबद का ओळी रड़कै कोनी।
संग्रै मांय छेहली कविता रै रूप “पाछी घड़त” नांव सूं सोळा कवितावां इण टीप साथै मिलै- “अै कवितावां परबत रा खासा इलाकां रा अैड़ा लोकगीतां सूं प्रेरित है जिकां नै लोक-कवितावां कैवणौ वत्तै सही व्हैला पण औ वांरौ उल्थौ कोनी।“ डबराल री आं ओळ्यां अर जिकी कवितावां किणी रौ उल्थौ कोनी उण रौ औ उल्थौ बांचणौ नवौ लखावै। अै जिकी नैं लोक कवितवां कैवण री बात लिखीजी है, साव नवी कवितावां रै जोड़ री कवितावां लखावै। आं कवितावां रौ मूळ जिका बांच्यौ है वां नै आ जाणता जेज नीं लागैला कै उल्थै मांय कवितावां री आतमा साकार हुवै, इण उल्लेखजोग काव्य-संग्रै रै उल्लेखजोग उल्थै सारू उल्थाकार-कवि-संपादक पारस अरोड़ा नैं घणा-घणा रंग।

मंगलेश डबराल का कोई पण कवि रो काम बांचणियां नैं अेक दीठ देवणी हुया करै। बा दीठ जिण सूं संवेदनसील कवि आपरै आसै-पासै रै जगत नै देखै-परखै अर रचाव मांय रंग भरै। इण पोथी रै पूरै पाठ पछै लखावै जाणै कवि कैय रैया हुवै- म्हां जिकौ भेळै देख्यौ, देखजौ अबै अेकला। 
नीरज दइया
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पोथी- म्हां जिकौ देखां (मंगलेश डबराल, उल्थौ-पारस अरोड़ा)

प्रकासक-साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, संस्करण-2013, पाना-84, मोल-100/- 
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