भाषा, साहित्य अर संस्कृति त्रिवेणी

सुरंगी संस्कृतिचावा-ठावा कवि ओम पुरोहित कागदरो दूजो निबंध-संग्रै है। इण सूं पैली आप रो निबंध-संग्रै मायड़ भाषा राजस्थानीघणो चावो रैयो। भाषा-विमर्श पछै आ संस्कृति-विमर्श री पोथी कवि कागद रै सांवठै सोच नै दरसावै। भाषा, साहित्य अर संस्कृति समाज नै त्रिवेणी रै रूप मांय एकठ पोखै। आं तीनूं रो आपसरी रो संबंध हुवै। जद कोई कवि कविता सूं गद्य कानी आवै तद केई खासियता भेळो आवै। कैयो जावै- गद्यं कवीणां निकषं वदन्ति’, कवि ओम पुरोहित कागदइण कसौटी माथै साव खरा इण खातर मानीजैला कै संवेदना सूं भरपूर आं निबंधां रो रचाव एक खास मकसद सूं करीज्यो है। लोग आज जद भाषा, साहित्य अर संस्कृति नै भूलता जाय रैया है तद इण ढाळै रै काम रो महत्त्व कीं बेसी बध जावै। अठै कैवणो पड़ैला कै राजस्थानी में साहित्य पेटै तो काम हुयो है अर हुय रैयो है, पण भाषा अर संस्कृति रो सीगो अजेस खासो काम मांगै। संस्कृति-विमर्श री गिणती री पोथ्यां बिचाळै आ पोथी आपरी न्यारी-निरवाळी ठौड़ बणावैला।
सुरंगी संस्कृतिपोथी पेटै ई ओ संजोग हो कै अकादमी री पत्रिका जागती जोतरै संपादक रूप कागद केई संपादकीय लिख्या जिणा मांय केई सवाल अर जबाब दिया। आपां री भाषा, साहित्य अर संस्कृति री पैरवी में उण बगत लिख्योड़ा संपादकीय असल में अरथावू-दीठवान छोटा-छोटा निबंध हा। मासिक पत्रिका आयै महीनै आवै अर जावै। पोथी स्थायी हुवै, सो ओम पुरोहित कागदआपरै पाठकां रै मिस जिकी जरूरी बातां राजस्थानी समाज सूं करी, वै अठै निवंधां रूप बांचता अजेस जरूरी लखावै। असल में इण जुग नै देखतां संपादक रूप प्रगट करियोड़ी कीं चिंतावां अर समझावण री अरथावू बातां रो लेखो लेखक री जागरूकता नै प्रगट करै। समकालीन साहित्य अर समाज रै ओळै-दौळै री अबखायां माथै हुयोड़ा विचार ही असली विमर्श है जिको आं अबखायां सूं आम्हीं-साम्हीं हुयां ई संभव है।
सुरंगी संस्कृतिपोथी पेटै दूजो संजोग ओ देख सकां कै इण पोथी में केई निबंध बै है जिका दैनिक भास्कररै मारफत कागद जी लिख्या। छापै रै कॉलम रै मिस न्यारै न्यारै विषयां माथै लिख्योड़ी छोटी-छोटी टीप नै अठै निवंध रूप सामिल देख कैय सकां कै ऐ लेखक रै विचारां रा बीज है, जिका सारगर्भित रूप में आपां रा जाण्या-अणजाण्या विषयां पेटै आंगळी-सीध करै। आपां री संस्कृति अर लोक साहित्य सूं जुड़ियोड़ी केई-केई बातां अठै साव नवै रूप में देखण नै मिलै।
‘सरंगी संस्कृति’ पोथी उण लोगां सारू जबाब है जिका केई वेळा सवाल करै कै संस्कृति रो मायनो कांई है? मिनखाजूण मांय आपां सभ्यता विकास सूं भौतिक विकास करियो। संस्कृति विकास सूं मानसिक विकास रै इण दौर माथै आय पूग्या हां। आपां रो खान-पान, बोली-भासा, देवी-देवता, लोक मानतावां अर रीत-रिवाज सगळा संस्कृति रै रंगां नै पोखै। साहित्य, संगीत, कला, धर्म-दर्शन, ग्यान-विग्यान, शिल्पकला आद संस्कृति रा ऊजळपख मानीजै। हरेक देस री आपो-आपरी संस्कृति हुवै। सार रूप कैवां तो मिनखाजूण री ओळखाण संस्कृति सूं ई हुवै अर ओम पुरोहित ‘कागद’ री आ पोथी आपां री इणी ओळख नै आगै बधावै। 
सुरंगी संस्कृतिसंग्रै रा सगळा निबंध दीखत में भलांई किणी कविता का लघुकथा दांई साव छोटा-छोटा लागता हुवो, पण ऐ आपरी बात कैवण में पूरा-पूरा संजोरा है। आ कैवणी कोई नवी बात नीं लागैला कै आं निबंधां में लेखक री काव्यात्मक भाषा रो प्रयोग हुयो है। लेखक कवि है अर भाषा प्रयोग, वर्तनी री दीठ सूं सावचेत है। छोटी-छोटी ओळियां मांय ठीमर ढंग सूं विषय माथै काव्यात्मक साथै बात साधणो लेखक री खिमता है। आं निबंधां नै पोथी रूप देवण सूं पैली लेखक री जूण जातरा बाबत जाणां तो ठाह लागैला कै केई केई जिलां रै गांवां मांय पूगर लेखक बरसां हथाई करता रैया है। ठेठ ग्रामीण जीवण अर गांवां मांय परोटीजण वाळा संस्कारां अर रीत-रिवाज री पुखता अर पक्की जाणकारी सूं इण पोथी मांय विवरण प्रामाणिक है।
सुरंगी संस्कृतिसंग्रै में संस्कृति री केई-केई इसी बातां री चरचा ई आपां नै मिलै जिकी आज री भागा-दौड़ में आपां बिसराय दी हां। हुय सकै कै लेखक री कीं बातां अर दीठ सूं आपां रा विचार मेळ नीं खावै। केई विषय अर अवधारणावां नै लेयर असमंजस अर विरोधाभास री बातां समाज में रैया करै। विमर्श रो ऊंडो अरथाव किणी विषय पेटै इण ढाळै री चरचा नै जलम देवणो पण हुया करै, सो आ पोथी इण दीठ सूं ई सफळ कैयी जा सकै। आपां रै चेतै सूं बारै हुवण वाळी केई अंवेरण जोग बानगियां दाखला रूप अठै देखर हरख अर गीरबै हुवै। सेवट में जे एक ओळी में कैवूं तो इण पोथी में आपां रा सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यां, रीत-रिवाज, तीज-तिंवार, परंपरावां अर संस्कारां री जसजोग संभाळ हुई है। सांवठी पोथी सुरंगी संस्कृतिसारू अग्रज लेखक ओम पुरोहित कागदनै घणी घणी मंगळकामनावां अर बधाई।
 -डॉ. नीरज दइया

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